शब-ए-फ़िराक़ में जज़्बात यूँ परेशाँ हैं फ़ज़ा-ए-दश्त में जैसे ग़ुबार का आलम चमन-परस्त हूँ मैं मेरी ज़िंदगी है यही ख़िज़ाँ के दौर में भी है बहार का आलम मैं अपना हाथ बढ़ाते हुए भी डरता हूँ गुल-ए-शगुफ़्ता में पिन्हाँ है ख़ार का आलम ये दौर वो है कि यकसाँ है सब की नज़रों में ग़म-ए-हबीब ओ ग़म-ए-इंतिज़ार का आलम ख़याल-ए-यार क़यामत से कम नहीं 'शब्बीर' मिटा रहा है मुझे इंतिज़ार का आलम