शब-ए-फ़िराक़ में रोया किया सहर के लिए तरस तरस गईं आहें मिरी असर के लिए इलाही ख़ैर से उस की ख़बर मिले मुझ को छुरी है तेज़ वहाँ मुर्ग़-ए-नामा-बर के लिए बजा है बोसे का गर नील बन गया रुख़ पर यही तो दाग़ मुनासिब था उस क़मर के लिए मरीज़-ए-हिज्र ने दी जान तेरी ग़फ़लत से न आया एक दिन ओ बे-ख़बर ख़बर के लिए ज़ियादा फ़र्त-ए-नज़ाकत से सरगिराँ वो हुए लगा लिया कभी संदल जो दर्द-ए-सर के लिए पयाम उस बुत-ए-शीरीं-अदा का जब लाया बढ़ा के हाथ क़दम हम ने नामा-बर के लिए जो मेहर-ए-हश्र मिरे दाग़-ए-दिल का फाहा हो रवा है अब्र का रूमाल चश्म-ए-तर के लिए ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ में दिन-रात हम हैं सरगर्दां अज़ल से था यही सौदा हमारे सर के लिए दुआएँ माँगना हों जितनी माँग ले 'वहबी' खुला है बाब-ए-इजाबत अभी असर के लिए