शब-ए-वस्ल उन्हें ज़िद अगर हो गई

शब-ए-वस्ल उन्हें ज़िद अगर हो गई
नक़ाब उठते उठते सहर हो गई

शब-ए-वस्ल क्या मुख़्तसर हो गई
पलक मारते ही सहर हो गई

अगर उन की तिरछी नज़र हो गई
मिरी जान सीना-सिपर हो गई

न कुछ मू-शिगाफ़ों से उक़्दा खुला
मुअम्मा तुम्हारी कमर हो गई

लगी है जो अश्कों की हर दम झड़ी
घटा क्या मिरी चश्म-ए-तर हो गई

हरम छोड़ कर मैं गया सू-ए-दैर
तबीअत किधर से किधर हो गई

नहीं रहम उस संग-दिल को ज़रा
मिरी आह क्या बे-असर हो गई

छुपाया बहुत इश्क़ हम ने मगर
उन्हें सब से पहले ख़बर हो गई

ख़बर ली न उस ग़ैरत-ए-माह ने
तड़पते रहे रात भर हो गई

नहीं काटे कटती है फ़ुर्क़त की शब
घड़ी मुझ को इक इक पहर हो गई

छुए पाँव मैं ने जो उस शोख़ के
हिना बाइस-ए-दर्द-ए-सर हो गई

बुतो तुम को सज्दे किए इस क़दर
हमारी जबीं संग-ए-दर हो गई

किया उस शकर-लब ने ए'जाज़ ये
बजाई जो नय नै-शकर हो गई

जमाया जो 'वहबी' ने अपना क़दम
लड़ाई मोहब्बत की सर हो गई


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