शब-ए-फ़िराक़ थी हम ज़िक्र-ए-यार करते रहे ख़िज़ाँ से अख़्ज़ नशात-ए-बहार करते रहे निकल के फूल से बू रम न कर सके जैसे हम अपने आप से ऐसे फ़रार करते रहे कभी सवाब भी सरज़द हुआ तो बे-मंशा कभी गुनाह भी बे-इख़्तियार करते रहे जो बात बर-सर-ए-मिम्बर न कर सका वाइ'ज़ तुम्हारे दोस्त वो बाला-ए-दार करते रहे बड़े वसूक़ से दुनिया फ़रेब देती रही बड़े ख़ुलूस से हम ए'तिबार करते रहे तमाम उम्र तिरी आरज़ू रही हम को तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार करते रहे कहाँ गए वो नदीमान-ए-ख़ास जो 'शौकत' हमेशा अहद-ए-वफ़ा उस्तुवार करते रहे