शब-ए-विसाल हँसी आती है मुक़द्दर पर वो हम से रूठ के सोने चले हैं बिस्तर पर वो सख़्त-जाँ हूँ कि क़ातिल है जान से आजिज़ कभी गले पे है ख़ंजर कभी है पत्थर पर चलेंगे का'बे को ज़मज़म पे धो तो लें ज़ाहिद बहुत शराब के धब्बे हैं दामन-ए-तर पर मरीज़-ए-इश्क़ से तंग आ के चारागर ने कहा उसे बुलाओ ये मरता है जिस सितमगर पर शब-ए-फ़िराक़ दिल-ए-बे-क़रार दूर रहे तड़प सकेंगे न हम दोनों एक बिस्तर पर