शबनम की नमी धूप की ताबिश भी बहुत थी बातों में गिले भी थे सताइश भी बहुत थी कुछ रास भी आए थे बदलते हुए मौसम कुछ फूल की फ़ितरत में नुमाइश भी बहुत थी फिर भी न बुझी शम्अ' ख़यालों की तुम्हारे आँधी भी बहुत तेज़ थी बारिश भी बहुत थी कुछ साग़र-ओ-मीना में घुला प्यार का अमृत नज़रों की कभी इतनी नवाज़िश भी बहुत थी काँटों में भी क्यों रूप न आ जाता गुलों का इक शाख़ पे दोनों की रिहाइश भी बहुत थी साहिल से न करते रहें तूफ़ाँ का नज़ारा हम डूबने वालों की ये ख़्वाहिश भी बहुत थी उस शोख़ की सूरत में कशिश तो थी बला की सीरत में मगर फ़ितरत-ए-साज़िश भी बहुत थी तहरीर जो चेहरों की किताबों में थी लिक्खी तुम ग़ौर से पढ़ते तो निगारिश भी बहुत थी निखरा हुआ क्यों रंग तग़ज़्ज़ुल का न होता उस में जो 'कलीम' आप की काविश भी बहुत थी