शफ़्फ़ाफ़ सत्ह-ए-आब का मंज़र कहाँ गया आईना चूर चूर है पत्थर कहाँ गया रौज़न खुला था दिल का हवाएँ भी आई थीं लेकिन क़रीब-तर था जो दिलबर कहाँ गया इक वो कि जिस को फ़ुर्सत लुत्फ़-ओ-करम नहीं इक मैं कि सोचता हूँ सितमगर कहाँ गया सीने से उस का हाथ हटाना मुहाल था जाते हुए वो हाथ हिला कर कहाँ गया पहले यही तड़प थी कि दस्तार क्यूँ गिरी और अब ये सोचता हूँ मिरा सर कहाँ गया घर में हूँ और सोच रहा हूँ न जाने क्यूँ दीवार-ओ-दर वही हैं मिरा घर कहाँ गया साहिल पे आ के सोचना 'अंजुम' फ़ुज़ूल है कश्ती कहाँ गई वो समुंदर कहाँ गया