शहर में शोर है उस शोख़ के आ जाने का हर कोई रूप भरे फिरता है दीवाने का रिंद-ओ-वाइ'ज़ थे बहम दस्त-ओ-गरेबाँ कल रात जाने क्या हाल हुआ शीशा-ओ-पैमाने का शब का आलम था जुदा दिन के तक़ाज़े कुछ और उस से क्या ज़िक्र करें रात के अफ़्साने का तर-ब-तर ख़ून में है दामन-ए-उम्मीद-ए-बहार हाथ में ज़ख़्म है टूटे हुए पैमाने का उस की आँखों में वही रंग वही हुस्न-ए-तलब दिल को समझाएँ मगर फ़ाएदा समझाने का सहन मस्जिद का है और 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम' के शे'र जाम-ए-ग़ायब में मगर रंग है मय-ख़ाने का