शहर में तेरे मिरा कोई शनासा भी नहीं कौन हूँ मैं ये किसी शख़्स ने पूछा भी नहीं हुस्न-ए-मग़रूर को आँखों में बसाया भी नहीं हिर्स का ज़हर मिरी रूह में उतरा भी नहीं उस की यादों से मुनव्वर हुई दिल की दुनिया चाँद ऐसा जो अभी अब्र से निकला भी नहीं अपनी मर्ज़ी से क़फ़स हम ने चुना था सय्याद इस लिए तेरे सितम का हमें शिकवा भी नहीं दौर-दौरा है यहाँ जौर-ओ-जफ़ा का लेकिन दोस्तो अहल-ए-वफ़ा शहर में अन्क़ा भी नहीं गुल्सिताँ कैसे तुझे सौंप दें ऐ दुश्मन-ए-गुल इस में शामिल तो तिरे ख़ून का क़तरा भी नहीं नाख़ुदा ग़ैर की कश्ती का तुझे क्यों ग़म है दूर गिर्दाब से कुछ तेरा सफ़ीना भी नहीं पारसा गो कि नहीं 'साबिर'-ए-ख़स्ता लेकिन आप जैसा उसे समझे हैं तो वैसा भी नहीं