शहरों की ख़ाक छान कर आया हूँ गाँव में कितना सुकूँ मिला है दरख़्तों की छाँव में वो आ रहा है मेरी तरफ़ रेंगता हुआ काँटा तलब का चुभ गया पत्थर के पाँव में अब उस के जिस्म पर भी मुज़य्यन हैं धज्जियाँ जिस का शुमार था कभी रंगीं क़बाओं में देता रहा पहाड़ की चोटी से वो सदा उस की सदाएँ खो गईं ऊँची फ़ज़ाओं में सब्ज़ा सा एक शहर पे बिखरा है चार-सू पत्तों के रंग घुल गए ठंडी हवाओं में 'बेताब' लड़कियों की जसारत तो देखिए ख़ुद को शुमार करती हैं सब अप्सराओं में