सोज़-ए-दिल से पुर-नम हो गई अब तो ये आतिश भी शबनम हो गई जब तबीअत ख़ूगर-ए-ग़म हो गई रफ़्ता रफ़्ता हर ख़लिश कम हो गई ज़ख़्म दिल के हो चुके थे ला-इलाज इक निगाह-ए-लुत्फ़ मरहम हो गई है मोहब्बत का ये मेराज-ए-कमाल ज़िंदगी ख़ुद तिश्ना-ए-ग़म हो गई कर चुके हैं उन से हम अहद-ओ-वफ़ा और ये ज़ंजीर मोहकम हो गई ग़म पे था सारा मदार-ए-ज़िंदगी ग़म हुआ कम तो ख़ुशी कम हो गई वो सितम कर के पशेमाँ जब हुए शर्म से गर्दन मिरी ख़म हो गई देखना मेरे तसव्वुर का कमाल आरज़ू-ए-दिल मुजस्सम हो गई देर तक मिलते रहे क़ल्ब-ओ-नज़र गुफ़्तुगू कुछ आज बाहम हो गई छेड़ देना हो गया 'शंकर' सितम ज़ुल्फ़ उन की और बरहम हो गई