शाइबा हिजरत का अब मेरे इरादे में नहीं दूसरी अंसार की बस्ती भी नक़्शे में नहीं इश्क़ को देना पड़ा है अपनी साँसों का ख़िराज ये भी तय है इस बिना पर मैं ख़सारे में नहीं ख़ुश-गुमाँ हैं टूटे फूटे लोग भी इस शहर में कौन है वो जो दबा ख़ुद अपने मलबे में नहीं ये अलमिया है चमकते जगमगाते दौर का रौशनी होते हुए भी हम उजाले में नहीं हो नहीं सकती अना इक ख़ाकसारी से बुलंद बोरिए में जो मसर्रत है वो सोफ़े में नहीं चंद लम्हों में हुआ करता है तय लम्बा सफ़र क्या है वो रफ़्तार जो सिक्कों के पहिए में नहीं तू ने क्या ने'मत अता की है दिल-ए-'मक़्सूद' को मुझ में है जो दर्द वो कोई फ़रिश्ते में नहीं