शाख़-ए-गुलशन पे था जो ठिकाना गया उस परिंदे का तो आब-ओ-दाना गया आँधियों की है ज़द पर घरौंदे यहाँ यानी हमदर्दियों का ज़माना गया ज़र्द मौसम की आमद ने बदला समाँ सब्ज़-ए-गुलसिताँ का ज़माना गया मेरी हसरत ने ओढ़ी जो लफ़्ज़ी क़बा मेरे ख़ामोश लब का तराना गया शम-ए-बज़्म-ए-तरब रात तन्हा रही कोई परवाना आख़िर क्यूँ आ न गया यूँ हुई शाख़ से हिजरत-ए-ताइराँ मर्सिया रह गया चहचहाना गया यूँ न कमज़ोर रिश्ते की बुनियाद थी आते जाते यूँ ही आना जाना गया