शाम की राख बदन पर मल कर क़श्क़ा खींच सितारों से रात सिंघासन अपना ही है कह दे हिज्र के मारों से कुछ बे-हँगम आवाज़ें थीं कुछ साए से फिरते थे आँखें मूँद के गुज़रे थे हम दुनिया के बाज़ारों से और अचानक जी उठते हैं बंद किवाड़ों वाले लोग छन-छन कर आवाज़ सी कोई आती है दीवारों से रूह के वीराँ तह-ख़ाने तक रोज़ कोई आ जाता है तन्हाई के मौसम वाली ख़ाली राह-गुज़ारों से कश्ती कब की डूब चुकी है लेकिन अब तक उस का पता दरिया दरिया पूछ रहा है जाने कौन किनारों से दिए की आख़िरी साँस बुझी और आँख उठी आकाश की सम्त कितने ही सर झाँक रहे थे रात की नम दीवारों से