सिलसिले नूर के मैं ख़ाक-नशीं जानता हूँ कितने सूरज हैं यहाँ ज़ेर-ए-ज़मीं जानता हूँ जान लेता हूँ हर इक चेहरे के पोशीदा नुक़ूश तुम समझते हो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ बे-सदा लम्हों में मौहूम ख़यालों से परे दिल की आवाज़ को मैं ऐन यक़ीं जानता हूँ किन इलाक़ों से गुज़रना है उठाए हुए सर और कहाँ मुझ को झुकानी है जबीं जानता हूँ उस के ही हुस्न की तम्हीद हैं सारे मौसम मैं उसे आज भी उतना ही हसीं जानता हूँ लाख जा बैठे कोई ऊँची फ़सीलों पे 'नबील' जिस की औक़ात जहाँ की हो वहीं जानता हूँ