शाम-ए-फ़ुर्क़त मिला ये सहारा मुझे बारहा बे-कसी ने पुकारा मुझे आ गया हाथ में जाम-ए-कैफ़-आफ़रीं मिल गया हिज्र-ए-ग़म का किनारा मुझे कर गया बे-नियाज़-ए-ग़म-ए-ईन-ओ-आँ उन की दिलकश नज़र का इशारा मुझे इंक़लाब-ए-मोहब्बत ये क्या हो गया उन का ग़म भी नहीं अब गवारा मुझे तेरे जलवों को थी जब मिरी जुस्तुजू याद है आज तक वो नज़ारा मुझे लाख हो ज़ेर फिर भी ग़म-ए-ज़िंदगी सौ सहारों का है इक सहारा मुझे रोज़-अफ़्ज़ूँ है बेचारगी इश्क़ की सूझता ही नहीं कोई चारा मुझे कह दिया उन से 'परवेज़' सब हाल-ए-दिल ख़ामुशी दे गई है सहारा मुझे