शराब-ए-इश्क़ में क्या जाने क्या तासीर होती है कहीं ये ज़हर होती है कहीं इक्सीर होती है न मफ़्हूम उस का फ़ुर्क़त है न मंशा वस्ल है उस का मोहब्बत अस्ल में इक ख़्वाब-ए-ख़ुद-ता'बीर होती है जुदा हो कर इसी में जज़्ब हो जाती है फिर इक दिन मोहब्बत आफ़्ताब-ए-हुस्न की तनवीर होती है मिरा ज़ौक़-ए-नज़र हो या तिरा फ़ैज़-ए-तसव्वुर हो मिरे आईने में अक्सर तिरी तस्वीर होती है शिकायत भी मोहब्बत ही में दाख़िल है मगर 'बिस्मिल' मोहब्बत बे-नियाज़-ए-शिकवा-ए-तक़दीर होती है