शरीक-ए-ग़म मिरा साया नहीं था वगर्ना दस्तरस में क्या नहीं था सर-ए-सहरा-ए-ग़म तिश्ना-लबी थी लब-ए-दरिया कोई प्यासा नहीं था उजाले दूर तक फैले हुए थे पस-ए-पर्दा कोई चेहरा नहीं था वो चेहरे ही तमाज़त खो चुके थे ग़ुबार-आलूदा आईना नहीं था मिरे ख़्वाबों में कैसे ढल गया है जिसे मैं ने कभी सोचा नहीं था मुझे भी बद-गुमानी हो गई थी तिरा लहजा भी शाइस्ता नहीं था अंधेरे में निशाँ गुम हो गए थे मुसाफ़िर रास्ता भूला नहीं था