तल्ख़ी-ए-जब्र-ए-मुसलसल से भरे हैं हम लोग लाओ कोई भी कसौटी कि खरे हैं हम लोग देखते सब हैं मगर कोई नहीं टकराता दह्र में सूरत-ए-कोहसार धरे हैं हम लोग वो मह-ओ-मेहर तराशे थे हमीं ने इक दिन इन दिनों जिन के उजालों से परे हैं हम लोग वादी-ए-शौक़ में काँटे तो नहीं टकराए हाँ कोई फूल उड़ा है तो डरे हैं हम लोग आज भी तेशा-ए-अय्याम की ज़द पर 'इशरत' कासा-ए-क़ैस की मानिंद धरे हैं हम लोग