शिकस्त-ए-शाम का मंज़र भरी बहार में था मैं अपने घर में भी रह कर किसी हिसार में था मैं इक ग़रीब वो लाखों के कारोबार में था मिरा वजूद मगर फिर भी इख़्तियार में था किया है अपने ही लोगों ने पाएमाल मुझे गिला हो किस से कि मैं ख़ुद ही ए'तिबार में था बहार की जगह कैसे ख़िज़ाँ चली आई नुमू का हौसला जब शाख़-ए-बर्ग-ओ-बार में था निकल सका न वो ज़ुल्मात की कशाकश से सहर के वास्ते वो कब से इंतिज़ार में था जो अपनी ज़ात में इक अंजुमन रहा ऐ 'शौक़' बिखर गया तो वो यादों की रहगुज़ार में था