शिकायत अब नहीं मुझ को किसी से मगर आँखों का रिश्ता है नमी से मुहाफ़िज़ अब चराग़ों का वही है जो वाक़िफ़ ही नहीं कुछ रौशनी से गँवा दूँ कैसे मैं इस तरह यूँही तुझे पाया है मैं ने बंदगी से निगाहों से पिला देता है जब वो सँभलता मैं नहीं हूँ फिर किसी से यहीं पर ख़त्म होती है कहानी जुदा अब हो रहा हूँ ज़िंदगी से वही 'जावेद' था मतलूब उस को फ़रिश्ता बन गया जो आदमी से