शिकवा किस किस से करें सब ही सितमगर निकले नए दुश्मन तो पुराने से भी बढ़ कर निकले दिल का आलम कि कोई रास न आया इस को जाने कितने ही हसीं प्यार के मंज़र निकले सामने से तो बहुत प्यार जताया सब ने मुड़ के देखा तो कई पीठ पे ख़ंजर निकले आसमाँ को मैं अगर अपनी हथेली पे रखूँ तब कहीं जा के मिरे क़द के बराबर निकले ख़ाक मलते हुए चलती है जहाँ की अज़्मत इश्क़ के कूचा से जब कोई क़लंदर निकले कुछ भी हासिल नहीं होता है किनारे पे कभी डूब जाएँ जो समुंदर में तो गौहर निकले जब से वीरान हुई बस्ती मिरे सपनों की मेरी आँखों से कई सुर्ख़ समुंदर निकले इसी उम्मीद पे जीते हैं जहाँ में हम लोग कल का दिन आज की उस शाम से बेहतर निकले 'साहिबा' सींचते हैं ख़ून-ए-जिगर से जिस को है ये मुमकिन के वही फूल भी पत्थर निकले