शीशे की दीवार थी हाइल क़ुर्ब की ऐसी सूरत थी कुछ अपनी भी मजबूरी थी कुछ उस की भी ज़रूरत थी साथी और किसी का मेरा हम-ज़ौक़-ओ-हम-रंग-ए-सुख़न उस की तन्हाई को शायद कुछ मेरी भी ज़रूरत थी पहली नज़र ने कितनी हैरत से उस शक्ल को देखा था मेरी सोच की तस्वीरों से मिलती-जुलती मूरत थी ज़र्द हवा का अंधा झोंका नक़्श मिटा कर गुज़र गया रेत पे अब बिखरे हर्फ़ों की इक बे-चेहरा सूरत थी जिस की बातें शहद से मीठी जिस के हाथ में सुर्ख़ गुलाब उस की सोच में ज़हर भरा था उस के दिल में कुदूरत थी ये किस के ए'ज़ाज़ में 'अकरम' मक़्तल में है जश्न बपा आज सलीबों की इस नगरी में ये किस की सूरत थी