सिकंदर हूँ तलाश-ए-आब-ए-हैवाँ रोज़ करता हूँ अभी नक़्श-ओ-निगार-ए-ज़िंदगी में रंग भरता हूँ लगा कर सब लहू आख़िर हुए दाख़िल शहीदों में मैं अपनी लाश रस्ते से हटाने तक से डरता हूँ पराई आग गर होती तो कब की जल बुझी होती मैं हँसते खेलते मौज-ए-हवादिस से गुज़रता हूँ यक़ीनन मौत के हर अक्स पर वो ख़ाक डालेगा दुआ से जिस की मैं अब तक न जीता हूँ न मरता हूँ कभी मेरी तलब कच्चे घड़े पर पार उतरती है कभी महफ़ूज़ कश्ती में सफ़र करने से डरता हूँ तुम्हारा इज़्न हो हासिल तो दरिया रास्ता देंगे जहाँ फ़िरऔन डूबा था वहीं पे पार उतरा हूँ 'फ़रीद' उस की तलब मुझ को झाँकती है कुएँ अक्सर वो चेहरा जिस की चाहत में मैं क्या क्या कर गुज़रता हूँ