तन्हा खड़े हैं हम सर-ए-बाज़ार क्या करें कोई नहीं है ग़म का ख़रीदार क्या करें ऐ कम-नसीब दिल तू मगर चाहता है क्या सन्यास ले लें छोड़ दें घर-बार क्या करें उलझा के ख़ुद ही ज़ीस्त के इक एक तार को ख़ुद से सवाल करते हैं हर बार क्या करें इक उम्र तक जो ज़ीस्त का हासिल बनी रहीं पामाल हो रही हैं वो अक़दार क्या करें है पूरी काएनात का चेहरा धुआँ धुआँ ग़ज़लों में ज़िक्र-ए-यार तरह-दार क्या करें इस दोहरी ज़िंदगी में भी लाखों अज़ाब हैं दुनिया से दिल है बरसर-ए-पैकार क्या करें