सीना-ए-ख़ाक पे बिखरा है लहू गाँव में ऐसा लगता है कि लौट आया है तू गाँव में गुफ़्तुगू होगी तिरी ख़ुद से किसी के लब पर तू किसी रोज़ किसी फूल को छू गाँव में कच्ची मस्जिद है जहाँ पढ़ते हैं सब लोग नमाज़ और इक नहर से करते हैं वुज़ू गाँव में मिल के बैठेंगे ख़ुशी और ग़मी में सारे जारी रखेंगे मोहब्बत की ये ख़ू गाँव में न परिंदे हैं न अब खेलते बच्चे 'तासीर' अब तो छाया है फ़क़त आलम-ए-हू गाँव में