सिसकियाँ लेती रही थी रात भर शम्अ' इक ऐसी जली थी रात भर हर तरफ़ था कैफ़-ओ-मस्ती का समाँ हर तरफ़ छाई ख़ुशी थी रात भर हिज्र में कोई शरीक-ए-ग़म न था शम-ए-दिल तन्हा जली थी रात भर सर उठाए थे अंधेरे के हुजूम रौशनी सहमी हुई थी रात भर देख कर रानाइयाँ चारों तरफ़ आँख मेरी कब लगी थी रात भर किस क़दर मग़्मूम थी बज़्म-ए-शराब दिल को कैसी बेकली थी रात भर 'आश्ना' चश्म-ए-तसव्वुर के निसार उन की ही जल्वागरी थी रात भर