सितम जौर-ओ-जफ़ा सब कुछ गवारा कर लिया मैं ने बचा कर उन का दामन ख़ुद को सज्दा कर लिया मैं ने मिरे ही सामने जब बर्क़ ने फूँका नशेमन को घड़ी भर के लिए वो भी नज़ारा कर लिया मैं ने बढ़ी जब बे-ख़ुदी हद से हुआ क्या फिर ख़ुदा जाने उन्हें सज्दा किया या ख़ुद को सज्दा कर लिया मैं ने यहाँ तो दाद मुँह देखे की मिलती है इसी ख़ातिर सुख़न-दानों की महफ़िल से किनारा कर लिया मैं ने 'असर' राह-ए-वफ़ा में इक मक़ाम ऐसा भी आया था वहाँ पे जान-ओ-दिल का हँस के सौदा कर लिया मैं ने वही नागिन का कल तक ज़िक्र था सारे ज़माने में उसी को अब 'असर' कहते हैं अपना कर लिया मैं ने