सोच-नगर के कोलाहल से बच जाते तो सोते भी सो जाते तो सपनों के मन चाहे हार पिरोते भी सूख गई एहसास की रग रग कुंठा की लौ सह सह कर अब जो ज़रा सा जी भर आता जी भर के हम रोते भी दिल का कबूतर अगर उड़ा ले अल्हड़-पन की कोई अदा चाहत के हाथों के अक्सर उड़ जाते हैं तोते भी चढ़ती धूप उतरते पानी रूठ न जाते हम से अगर नई रुतों में गई रुतों के दाग़ पुराने धोते भी काश भँवर की आँख बुलाती बाँह पसारे मौजें भी नदी किनारे बैठ के हम तुम हाथ और पैर भिगोतें भी