उदासी ही उदासी है बड़े बेज़ार बैठे हैं न जाने क्या वो बाज़ी थी जिसे हम हार बैठे हैं हवा के हाथ में है उफ़ ये किस मौसम का परवाना परिंदे फिर परों में डाल कर मिंक़ार बैठे हैं मशीनों के सुकूँ-ना-आश्ना इस दौर में यारो कहाँ वो लोग जो कहते थे हम बेकार बैठे हैं किसी दीवार का साया कि कोई मोड़ का पत्थर जहाँ बैठे हैं गोया दर-ख़ुर-ए-आज़ार बैठे हैं उसी का नाम है शायद रह-ए-उल्फ़त की मजबूरी कहीं से बे-सबब उट्ठे कहीं नाचार बैठे हैं इन्ही लोगों ने मौजों को सफ़ीनों की अदा दी है अभी उस पार अटके थे जो अब इस पार बैठे हैं नियाज़-ओ-नाज़ की वो कशमकश भी अब कहाँ 'राही' जिसे हम दिल समझते थे उसे भी मार बैठे हैं