सोचिए देख के ख़ुद अपने गरेबानों में कितने ताबूत सजे रक्खे हैं ऐवानों में महफ़िलें रोज़ सजाते हैं सजाने वाले ख़स्तगी आग लगा देती है अरमानों में हाथ बाँधे हुए देखा है खड़े लोगों को शहरियत सीख रहे होंगे वो दरबानों में अपनी नज़रों में है वो क़ाबिल-ए-सद-फ़ख़्र कि जो क़िस्सा-ए-जौर-ए-बुताँ कहता हो बुतख़ानों में हम ने देखे हैं गुलिस्ताँ में हक़ाएक़ क्या क्या कुछ हैं सैराब तो कुछ बे-सर-ओ-सामानों में 'हामिद' इक चाय की प्याली की करामात न पूछ पी के दो घूँट पहुँच जाता हूँ मय-ख़ानों में