सोग राँझे के हैं न हीर के हैं दर्द मीरा का लफ़्ज़ 'मीर' के हैं सच नहीं है अनाज की क़िल्लत यार फ़ाक़े यहाँ ज़मीर के हैं जो सगे लग रहे हैं दुनिया को वो ज़बान और दिल फ़क़ीर के हैं जिस को ज़ंजीर से मोहब्बत हो हम तलबगार उस असीर के हैं मंदिरों में न रोक जाने से उस की कुर्ती पे दाग़ अबीर के हैं उस ने नाख़ुन से ख़ुद तराशे थे जिस्म पर जो निशान तीर के हैं पाओं 'अनन्त' आत्मा के कौन पड़े हम ग़ुलाम आज भी शरीर के हैं