सोज़-ए-ग़म रंज-ओ-अलम हद से सिवा देते हैं वो भी क्या ख़ूब मोहब्बत का सिला देते हैं इश्क़ की राह में मरते नहीं मरने वाले इश्क़ को ज़िंदा-ए-जावेद बना देते हैं किस तरह जान से जाते हैं मरीज़ान-ए-अलम आइए आज ये मंज़र भी दिखा देते हैं क्या गुज़रती है किसी पर उन्हें ये क्या मालूम वो तो पर्दा रुख़-ए-रौशन से उठा देते हैं तुम 'ज़िया' किस को सुनाते हो फ़साना दिल का वो तो हर बात का अफ़्साना बना देते हैं