सुब्ह के दर्द को रातों की जलन को भूलें किस के घर जाएँ कि इस वादा-शिकन को भूलें आज तक चोट दबाए नहीं दबती दिल की किस तरह उस सनम-ए-संग-बदन को भूलें अब सिवा इस के मुदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है इतनी पी जाएँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें और तहज़ीब-ए-ग़म-ए-इश्क़ निभा दें कुछ दिन आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें