सुब्ह का मंज़र है लेकिन गुल कोई ताज़ा नहीं रू-ए-गुलशन पर कहीं भी ओस का ग़ाज़ा नहीं टूट कर हम चाहने वालों से जब बिछड़ेंगे आप हम ही हम बिखरेंगे लेकिन मिस्ल-ए-शीराज़ा नहीं ग़ार वालों की तरह निकला है वो कमरे से आज उस को इस दुनिया की तब्दीली का अंदाज़ा नहीं कुछ न कुछ कहते तो रहते हैं यहाँ हम लोग जी फिर भी इस शहर-ए-बुताँ में कई आवाज़ा नहीं इस इमारत के मुक़द्दर की लकीरों में कहीं खिड़कियाँ तो हैं मगर 'मिस्दाक़' दरवाज़ा नहीं