सुब्ह-दम भी यूँ फ़सुर्दा हो गया ऐ दिल-ए-नाज़ुक तुझे क्या हो गया सीना-ए-बरबत से जो शोला उठा ग़म-ज़दों के दिल का नग़्मा हो गया शुक्रिया ऐ गर्दिश-ए-जाम-ए-शराब मैं भरी महफ़िल में तन्हा हो गया रात दिल को था सहर का इंतिज़ार अब ये ग़म है क्यूँ सवेरा हो गया पूछिए उस से ग़म-ए-साज़-ए-ख़ुलूस चार ही दिन में जो रुस्वा हो गया बुझ गई कुछ इस तरह शम्-ए-'सलाम' जैसे इक बीमार अच्छा हो गया