सुख़न-आसार मौसम का खुला मंज़र बनाना है मुझे सहरा किनारे फूल सा मंज़र बनाना है सफ़ीर-ए-सुब्ह आइंदा हूँ सारी रात जागूँगा परिंदों की तरह इक दिल-कुशा मंज़र बनाना है लहू मौसम में घोलूँगा हुनर पैकर-तराशी का कि पत्थर में छुपी तस्वीर का मंज़र बनाना है मुझे बाब-ए-असर भी खोलना है आसमानों में ज़मीनों के दुआ-घर में दुआ मंज़र बनाना है यही ख़्वाहिश है मेरे सब्ज़-पोशों के क़बीले की मुझे फिर इस ज़मीं को कर्बला-मंज़र बनाना है मिरे विर्से में तो सहरा ही लिक्खा है मगर मुझ को मदीने की खजूरों से सजा मंज़र बनाना है यक़ीनन फिर तवाफ़-ए-ज़ात का मंज़र बनाऊँगा मगर पहले मुझे सज्दों भरा मंज़र बनाना है कोई देखे तो इस ला-मनज़री की धुंद से आगे कोई सोचे तो इस के बाद क्या मंज़र बनाना है फ़सील-ए-क़स्र-ए-कोहना के मुक़ाबिल धूप का मंज़र सुनहरी धूप का मुझ को नया मंज़र बनाना है नया रंग-ए-सुख़न ईजाद करना है मुझे 'शौकत' ग़ज़ल के शहर में इक ख़ुशनुमा मंज़र बनाना है