सुकून-ए-क़ल्ब की दौलत कहाँ दुनिया-ए-फ़ानी में बस इक ग़फ़्लत सी हो जाती है और वो भी जवानी में तिरी पाकीज़ा सूरत कर रही है हुस्न-ए-ज़न पैदा मगर आँखों की मस्ती डालती है बद-गुमानी में हबाब अपनी ख़ुदी से बस यही कहता हुआ गुज़रा तमाशा था हवा ने इक गिरह दे दी थी पानी में कमर का क्या हूँ 'आशिक़ खुल गई ज़ुल्फ़-ए-दराज़ उन की कमर ख़ुद पड़ गई है इक बला-ए-आसमानी में उसी सूरत में दिलकश ख़ूबी-ए-अल्फ़ाज़ होती है कि हुस्न-ए-यार का पैदा करे जल्वा म'आनी में अदा-ए-शुक्र कर के एहतिराज़ औला है ऐ 'अकबर' हज़ारों आफ़तें शामिल हैं उन की मेहरबानी में