तलब हो सब्र की और दिल में आरज़ू आए ग़ज़ब है दोस्त की ख़्वाहिश हो और 'अदू आए तुम अपना रंग बदलते रहो फ़लक की तरह किसी की आँख में अश्क आए या लहू आए तिरी जुदाई से है रूह पर ये ज़ुल्म-ए-हवास मैं अपने आप में फिर क्यों रहूँ जो तू आए रिया का रंग न हो मुस्तनद हैं वो आ'माल कलाम पुख़्ता है जब दर्द-ए-दिल की बू आए लबों का बोसा जिसे मिल गया हो वो जाने क़दम तो उस बुत-ए-बे-दीं के हम भी छू आए खुली जो आँख जवानी में 'इश्क़ आ पहुँचा जो गर्मियों में खुलें दर तो क्यों न लू आए वो मय नसीब कहाँ इन हवस-परस्तों को कि हो क़दम को न लग़्ज़िश न मुँह से बू आए