सुकूँ में कैसे भला तालिबान-ए-ज़ात रहें जब आप यूँही पस-ए-पर्दा-ए-सिफ़ात रहें अगर न आप पस-ए-पर्दा-ए-सिफ़ात रहें न मुम्किनात ही ठहरें न वाजिबात रहें वो ख़ाक-ए-दर हो अगर ज़ीनत-ए-जबीन-ए-नियाज़ हमीं को हक़ है कि मस्जूद-ए-काएनात रहें है ख़िज़्र काबा-ए-इरफ़ाँ यक़ीं की यक-रंगी सनम-कदे में ख़िरद के तवहहुमात रहें उलझ के रह गई ज़र्रों में फ़िक्र-ए-नौ-ए-बशर कहाँ ये महरम-ए-असरार-ए-काएनात रहें तवाफ़-ए-शम्स-ओ-क़मर मुंतहा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र जुनूँ ये है कि ख़ुदावंद-ए-काएनात रहें दुरुस्त मुझ से नहीं शिकवा-ए-कम-आमेज़ी मैं चाहता हूँ कि क़ाएम तअ'ल्लुक़ात रहें कभी इनायत-ए-अहबाब की तमन्ना थी अब आरज़ू है कि महरूम-ए-इल्तिफ़ात रहें 'रशीद' ऐश अगर हो नसीब-ए-अहल-ए-हुनर तो किस के हो के ज़माने के हादसात रहें