सुकून-ए-दिल की ख़ातिर इक सहारा ढूँडते हैं जो गर्दिश में नहीं है वो सितारा ढूँडते हैं अभी तो तुझ से वाबस्ता हैं पिछले ज़ख़्म सारे शब-ए-रफ़्ता तुझे हम क्यूँ दोबारा ढूँडते हैं कोई घर ही नहीं तो बे-घरी का ज़ख़्म कैसा सुकूनत के लिए इक इस्तिआरा ढूँडते हैं ज़मीं अच्छी लगी है आसमाँ पर जा के हम को कहाँ है इस ज़मीं पर घर हमारा ढूँडते हैं ये दरिया ज़िंदगी का पार कैसे हो कि जब हम किनारे पर खड़े हैं और किनारा ढूँडते हैं हमारी ख़्वाहिश-ए-बे-ख़्वाहिशी जो राख कर दे हम अपनी शख़्सियत में वो शरारा ढूँडते हैं किसी महताब को क़दमों में ले आने से पहले हम उन आँखों का हल्का सा इशारा ढूँडते हैं