सुलगती रेत में इक चेहरा आब सा चमका उदास आँखों में जीने का हौसला चमका अँधेरी रात में ये किस का नक़्श-ए-पा चमका मुसाफ़िरों की निगाहों में रास्ता चमका शब-ए-फ़िराक़ में कोई सितारा टूटा तो हमारी सोच में अन-जाना वसवसा चमका फ़ज़ा में फैल गए कितने याद के जुगनू दयार-ए-शौक़ में जब कोई रत-जगा चमका उदासियों के अँधेरे डरा रहे थे मुझे कि हाफ़िज़े में अचानक तिरा कहा चमका बिखर रही है ख़यालों में ख़्वाब की ख़ुशबू वजूद बन के कहाँ कोई ख़ुश-अदा चमका छुपाए छुप न सका मैं तो भीड़ में 'अम्बर' न जाने कैसे मुझी पर वो दायरा चमका