सुना के अपने ऐश-ए-ताम की रूदाद के टुकड़े उड़ा दूँगा किसी दिन चर्ख़ की बेदाद के टुकड़े असीरी को अता कर के असीरी का शरफ़ हम ने उड़ा डाले ख़ुद अपनी फ़ितरत-ए-आज़ाद के टुकड़े कहाँ का आदमी इंसान कैसा मा-हसल ये है कहीं अश्ख़ास के पुर्ज़े कहीं अफ़राद के टुकड़े तबाही के मज़ों से भी गए अब वाए-महरूमी समेटूंगा कहाँ तक हसरत-ए-बर्बाद के टुकड़े ये सीना तल्ख़ यादों का ख़ज़ीना ही सही लेकिन बहुत चुभते हैं दिल में इक नुकीली याद के टुकड़े तुम अच्छे ही सही मेरा बुरा होना भी है बर-हक़ कि हम सब हैं किसी मजमूअ-ए-अज़दाद के टुकड़े हमें लख़्त-ए-जिगर खाने को हरगिज़ कम न था 'अख़्तर' मगर क़िस्मत में लिक्खे थे जहानाबाद के टुकड़े