वहशत-ए-दिल के इशारों पे चले हैं बरसों यूँ भी हम अक़्ल की आँखों में खले हैं बरसों अपनी मर्ज़ी से भी दो-चार क़दम चलने दे ज़िंदगी हम तिरे कहने पे चले हैं बरसों ख़ाक पर अश्क गिरें और मुझे तकलीफ़ न हो ये मिरे दिल की पनाहों में पले हैं बरसों लज़्ज़त-ए-सोज़-ए-मोहब्बत कोई हम से पूछे हम तिरे ग़म के शरारों में जले हैं बरसों हुस्न तन्हा नहीं हक़दार वफ़ा का 'मोहसिन' इश्क़ ने भी कफ़-ए-अफ़सोस मले हैं बरसों