सुनता रहा जो अक़्ल की महजूब हो गया दिल की नज़र से देखा तो महबूब हो गया करता रहा जो इश्क़ में अपनी अना की बात नज़रों से तेरी गिर गया मा'तूब हो गया जिस ने कभी सवाल उठाया यक़ीन पर दिल वो सलीब-ए-अक़्ल पे मस्लूब हो गया जिस पर चला था रोज़ तिरी सम्त बे-सबब रस्ता वो मेरे नाम से मंसूब हो गया यूँ तो सवाल अक़्ल ने सोचे कई मगर दिल जल्वा-हा-ए-हुस्न से मरऊब हो गया ऐसी हवा चली है कि अब तेरे शहर में मेह्र-ओ-वफ़ा का ज़िक्र भी मा'यूब हो गया हद से बढ़ी तलब तो फिर इक रोज़ यूँ हुआ तालिब दयार-ए-हुस्न में मतलूब हो गया देखा जिसे भी तेरा ही जल्वा लगा मुझे हर रंग तेरे हुस्न का मंदूब हो गया करता रहा हूँ अक़्ल की तरवीज उम्र भर फिर शायरी में भी यही उस्लूब हो गया दिल के मुआमलात पे ग़ालिब कभी न था फिर यूँ हुआ कि अक़्ल से मग़्लूब हो गया लिखता रहा है आज 'हिदायत' जो हाल-ए-दिल क़ासिद के हाथ आप ही मक्तूब हो गया