सूरज छुपा इक इक गुल-ए-मंज़र बिखर गया शो'ला सा कोई दिल में उतर कर बिखर गया था चाँदनी का जिस्म कि शीशे का था बदन आई हवा तो गिर के ज़मीं पर बिखर गया कल हँस के रेग-ए-दश्त से कहती थी ज़िंदगी मैं ने छुआ ही था कि वो पत्थर बिखर गया नद्दी पे एक नर्म किरन ने रखा जो पाँव चारों तरफ़ सदा का समुंदर बिखर गया 'जाफ़र' हमारा दिल भी है वो आइना कि बस खाई ज़रा निगाह की ठोकर बिखर गया