ताब-ए-फ़ुर्क़त भी नहीं ज़ब्त का यारा भी नहीं उसे घबरा के भुला दें ये गवारा भी नहीं ख़ुद-फ़रेबी से तिरा लुत्फ़ जिसे कह सकते अपनी क़िस्मत में वो मुबहम सा इशारा भी नहीं मौज-ए-साहिल ही डुबो देती तो क्या कहना था वो सफ़ीना जिसे तूफ़ाँ का सहारा भी नहीं वाए तक़दीर-ए-मोहब्बत कभी आते जाते तू ने देखा भी नहीं हम ने पुकारा भी नहीं इतने मानूस हैं अब शाम की तन्हाई से ग़म के मारों को तिरा क़ुर्ब गवारा भी नहीं मुन्हरिफ़ तेरे तग़ाफ़ुल से सभी हैं लेकिन तेरा ग़म छोड़ के दुनिया में गुज़ारा भी नहीं क्या हुआ चश्म-ए-करम रूठ गई ऐ 'माहिर' दिल मगर गर्दिश-ए-अय्याम से हारा भी नहीं