तन्हाई जहाँ ज़िक्र-ए-रुख़-ए-यार करे है हर ग़म को चराग़-ए-सर-ए-दीवार करे है वो पुर्सिश-ए-ग़म हो कि तिरा लुत्फ़-ओ-करम हो दीवाना तो हर बात से इंकार करे है मुद्दत हुई हम शहर-ए-तमन्ना से चले आए क्यों हम से सबा ज़िक्र-ए-रुख़-ए-यार करे है बे-रब्त सी नज़रों में वो अंदाज़-ए-त'अल्लुक़ हर मरहला-ए-ज़ीस्त को दुश्वार करे है ज़ंजीर न पहनी कि गरेबाँ न किया चाक यूँ भी कोई रुस्वा सर-ए-बाज़ार करे है