तबस्सुम में न ढल जाता गुदाज़ ग़म तो क्या करते कि ये शो'ला न बन जाता अगर शबनम तो क्या करते लुटा देते न अपनी ज़िंदगानी हम तो क्या करते निगाह-ए-लुत्फ़ का होता वही आलम तो क्या करते यूँही दैर-ओ-हरम की मंज़िलों में ठोकरें खाते सहारा गर न देती लग़्ज़िश-ए-पैहम तो क्या करते 'हमीद' अच्छा हुआ ख़्वाब-ए-तिलिस्म-ए-आरज़ू टूटा कि ये महफ़िल न हो जाती बरहम तो क्या करते