तड़पते रहते हैं पानी के धारे अपनी जगह जमे हुए हैं नदी के किनारे अपनी जगह निगार-ए-शब की सुबुक-गामियों पे मरते हुए रगों में दौड़ रहे हैं शरारे अपनी जगह शुआ-ए-महर बुझाने में हो गई नाकाम चमक रहे हैं फ़लक पर सितारे अपनी जगह कहाँ वो आँच जो उस के ख़याल से निकले वो हुस्न अपनी जगह ये नज़ारे अपनी जगह बदन समेट के देखा जो उस ने मेरी तरफ़ सिमट के रह गए सब इस्तिआ'रे अपनी जगह अहम हैं ख़ामा-ए-दिल की निगारिशें लेकिन निगाह-ए-यार के 'यावर' शुमारे अपनी जगह